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हरी-हरी वसुंधरा...
नीला-नीला ये गगन... - २
हरी-हरी वसुंधरा पे नीला-नीला ये गगन
कि जिसपे बादलों की पालकी उड़ा रहा पवन
दिशाऐं देखो रंग भरीऽऽऽ
दिशाऐं देखी रंग भरी, चमक रहीं उमंग भरी
ये किसने फूल-फूल पेऽऽऽ
ये किसने फूल-फूल पे किया सिंगार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
तपस्वियों सी हैं अटल ये पर्वतों की चोटियाँ
ये सर्प सी घुमेरदार घेरदार घाटियाँ
ध्वजा से ये खड़े हुऐऽऽऽ
ध्वजा से ये खड़े हुऐ, हैं वृक्ष देवदार के
गलीचे ये गुलाब के, बगीचे ये बहार के
ये किस कवि की कल्पनाऽऽऽ
ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
कुदरत की इस पवित्रता को तुम निहार लो
इसके गुणों को अपने मन में तुम उतार लो
चमका लो आज लालिमाऽऽऽ
चमका लो आज लालिमा अपने ललाट की
कण-कण से झाँकती तुम्हें छवि विराट की
अपनी तो आँख एक हैऽऽऽ
अपनी तो आँख एक है उसकी हज़ार है
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार
ये कौऽऽऽन चित्रकार है...
ये कौन चित्रकार है, ये कौन चित्रकार